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कविता

आतप-गीत

बुद्धिनाथ मिश्र


यों सहमे-सहमे हैं पेड़
धूप की अदालत में हो गया
जैसे कोई बड़ा अँधेर।

तरकश से छूट अग्निबाणों ने
भस्म किया सारा सीवान
शंखों के पास भी बचे कहाँ
जल के संजीवनी निशान
तिल भर की छाँह तले चुप्पी को
लिया लाल गायों ने घेर।

भून गई धूल भरी आँधियाँ
जले-भुने कंदों-से गाँव
आग-बबूला हुआ पलाश-वन
कमलों के भी ठिठके पाँव
फरती हैं मंगली वनस्पतियाँ
जैसे फरता जहर कनेर।

इतना क्यों उग्र शुनाशीर हुआ
अँगुरी क्या गड़ी नई फाँस
साँझी तक झुलस गई आँगन की
केवड़े की सर्द-गर्म साँस
गरजेगी शीघ्र काल-बैसाखी
बरसेगी देर या सबेर।

 


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